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कोई तनहाई का एहसास दिलाता है मुझे / शाज़ तमकनत
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कोई तनहाई का एहसास दिलाता है मुझे
मैं बहुत दूर हूँ नज़दीक बुलाता है मुझे
मैं ने महसूस किया शहर के हँगामे में
कोई सहरा है सहरा में बुलाता है मुझे
तू कहाँ है के तेरी जुल्फ का साया-साया
हर घनी छाँव में ले के बिठाता है मुझे
ऐ मेरे हाल-ए-परेशाँ के निगह-दार ये क्या
किस क़दर दूर से आईना दिखाता है मुझे
ऐ मकीन-ए-दिल-ओ-जाँ मैं तेरा सन्नाटा हूँ
मैं इमरात हूँ तेरी किस लिए ढाता है मुझे
रहम कर मैं तेरी मिज़गाँ पे हूँ आँसू की तरह
किस क़यामत की बुलंदी से गिराता है मुझे
‘शाज़’ अब कौन सी तहरीह को तक़दीर कहूँ
कोई लिखता है मुझे कोई मिटाता है मुझे