भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई तुम जैसा था, ऐसा ही कोई चेहरा था / खलीलुर्रहमान आज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई तुम जैसा था, ऐसा ही कोई चेहरा था
याद आता है कि इक ख़्वाब कहीं देखा था ।

रात जब देर तलक चाँद नहीं निकला था
मेरी ही तरह से ये साया मेरा तनहा था ।

जाने क्या सोच के तुमने मेरा दिल फेर दिया
मेरे प्यारे, इसी मिट्टी में मेरा सोना था ।

वो भी कम बख़्त ज़माने की हवा ले के गई
मेरी आँखों में मेरी मय का जो इक क़तरा था ।

तू न जागा, मगर ऐ दिल, तेरे दरवाज़े पर
ऐसा लगता है कोई पिछले पहर आया था ।

तेरी दीवार का साया न खफ़ा हो मुझसे
राह चलते यूँ ही कुछ देर को आ बैठा था ।

ऐ शबे-ग़म, मुझे ख़्वाबों में सही, दिखला दे
मेरा सूरज तेरी वादी में कहीं डूबा था ।

इक मेरी आँख ही शबनम से सराबोर रही
सुब‍‌ह को वर्ना हर इक फूल का मुँह सूखा था ।