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कोई नहीं गिरता पृथ्वी से नीचे / विजयशंकर चतुर्वेदी

पृथ्वी एक विशाल मेज़ है गोलाकार
जिस पर चलता आया है दुनिया का कारोबार
इसी मेज़ पर जन्मीं प्राचीन से प्राचीनतम सभ्यताएँ
मिटते गये बेबीलोन, मेसोपोटामिया, मिस्र, रोम और यूनान
मगर सदा बहता रहा अनन्त भविष्य का जीवन-जल
वेद, अवेस्तां, बाइबल, कुरआन, श्रुति
ब्राम्हण ग्रन्थ, आरण्यक, मीमांशा, निरुक्त
रचे गए इसी मेज़ पर बैठकर ।
इसी पर लपलपाई ज्वालामुखियों की जीभ
तरबूज की तरह कँपाया भूकम्पों ने इसे असँख्य बार
मेज़ पर उगती रहीं पर्वत शृंखलाएँ अनगिन
फूट पड़ीं नील, दज़ला, फ़रात, गंगा, अमेज़न
पेड़ों की पता नहीं कितनी पीढ़ियाँ होती रहीं कोयला
बन्दर से बनता रहा मनुष्य ।
मगर यह भी नहीं है मनुष्य का अन्तिम रूप
गो कि पड़ती है उस पर पहले जैसी ही छाँव-धूप
काल के रन्दे से छीलती रही है प्रकृति
करती रही है उसे अपने अनुरूप ।
फिर ईश्वर आया और कण-कण में घुस गया
आए देवी-देवता, किन्नर-गन्धर्व आए
कुछ बिला गए कालान्तर में

कुछ बस्तियों में समा गए
फिर बने वर्ण और उनके प्रकार
वहीं से शुरू होता है हमारा अन्धकार ।
समय-समय पर आते रहे पैगम्बर
लाते रहे अपने-अपने आकाओं के सन्देश
मनुष्य बदलता रहा अपना चेहरा
रूप-रंग-खान-पान-भूषा-वेश
घूमती रही यह मेज़ अहर्निश
दिक् और काल की वक्रता में ।
मेज़ के आर-पार हवा बहती रही बेरोक-टोक
बजता रहा आसमान का नीला शंख
बहते रहे उनचास पवन दशों दिशाओं में
मनुष्य जाति रही सदा अजर-अमर
मगर इस विराट मेज़ से लुढ़कर
नीचे नहीं गिरा कोई आज तक
फिर कैसे लुढ़क गए हमारे खेत ?
हमारे शस्य-श्यामला भूखण्ड, नदियाँ, वनप्रान्तर ?
कौन निगल गया हमारा मलयानिल,
किसने बुझा दी हमारी बड़वानल ?
हम चीत्कार से तनी प्रत्यँचाएँ हैं
हमारे देव अलग हैं
असुर अलग
अलग है हमारा देवासुरसँग्राम ।

फेन की तासीर में शामिल है समुद्र
समुद्र की तासीर में शामिल है फेन
हम नहीं चाहते कि फेन प्रलय बनकर बिखर जाए इस मेज़ पर ।
जो अग्निपुँज बँधे रह गए थे कपास से
कहाँ गए वे हमारे अग्निगर्भा रिश्ते ?
अब जो आग दिखती है हमारी नहीं
जो पर्वत शृंखलाएँ हैं,
ज़ंजीरें हैं हमारे मन की
जो उपत्यकाएँ हैं,
असुरक्षित अन्तस है हमारा ।

हमारा नहीं है सूर्योदय
सूर्यास्त भी नहीं है हमारा
हम रह गए हैं अपने त्रिशंकु
इसी दिक्-काल में स्थिराँक ।
हम परिन्दों के लिए नहीं हैं
छाँव देने वाले पेड़ों के लिए भी नहीं
पेड़ों की शाखाओं और उसकी अमरबेलों के लिए तो कुछ भी नहीं ।
ये हाथियों की चिंघाड़ें,
मेघों की गर्ज़नाएँ भी हमें प्रभावित नहीं कर पाती ।
क्यों लुढ़काए जा रहे हैं हम मेज़ से नीचे लगातार ?
किसी हाथी का हौदा नहीं थी यह मेज़
हमारा रंगमंच भी नहीं सजा था किसी अर्जुन के लिए ।
तब क्यों ढीली कर दी कृष्ण ने अपनी तर्जनी ?
हमारे गले, उनके सुदर्शन-चक्र
हमारे धड़ों की जोड़ियां मिलाए नहीं मिलतीं सिरों से ।

क्यों फेंका जा रहा है हमें घसीटकर मेज़ से नीचे
जहाँ नहीं है कोई आधार, कोई तल ?
जब हम अपनी आत्मा को देखते हैं
वह लगती है बाघिन जरख़रीद ग़ुलाम संस्कारों की,
हे बाघिन, तुम रौंदो इस मेज़ को कुछ इस तरह
कि आन्दोलित हो जाए तन-मन
मिट जाएँ समस्त पन्थ, कुलनाम, गोत्र
मनुष्य मात्र का हो शिवताण्डवस्तोत्र
ताकि सूर्योदय हो सके हमारा
सूरज हो निख़ालिस हमारा अपना ।
कोई गुरुत्वाकर्षण बाँधे न बाँधे
हम नहीं छोड़ेंगे इस विराट मेज़ का दामन
जिसकी गति हो रही है तेज़ से तेज़तर
लेकिन गिरता नहीं एक कण,
एक क्षण भी गिरता नहीं
फिर कैसे चले जाएँगे हम रसातल में ?