भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई पत्थर ही किसी सम्त से आया होता / राज नारायन 'राज़'
Kavita Kosh से
कोई पत्थर ही किसी सम्त से आया होता
पेड़ फल-दार मैं इक राह-गुज़र का होता
अपनी आवाज़ के जादू पे भरोसा करते
मोर जो नक़्श था दीवार पे नाचा होता
एक ही पल को ठहरना था मुंडेरों पे तिरी
शाम की धूप हूँ मैं काश ये जाना होता
एक ही नक़्श से सौ अक्स नुमायाँ होते
कुछ सलीक़े ही से अल्फ़ाज़ को बरता होता
लज़्ज़तें क़ुर्ब की ऐ ‘राज़’ हमेशा रहतीं
शाख़-ए-संदल से कोई साँप ही लिपटा होता