कोई शख़्स भी ऐसा न था / निश्तर ख़ानक़ाही
दर्द की टीसें न थीं, आँसू न थे, नाला* न था
हमने शायद तुझको अगलों की तरह चाहा ना था
कितना मुश्किल है समझना और समझाना इसे
अब से पहले का ज़माना इतना पेचीदा न था
दम-बखुद* थे लोग अपने आपसे सहमे हुए
घर के अंदर आफ़ियत* का एक भी गोशा न था
बंद दरवाज़ों से अपना सर पटकती थी हवा
तंग गलियों से निकलने का कोई रस्ता न था
हम समझते थे कि है यह भी मताए-दीगराँ*
जिंदगी को हमने अपना जानकर बरता न था
गिर गया बर्गे-ख़िज़ाँ-आसार* तुझसे टूटकर
शाख़े-लरज़ाँ!* इसमें क्या तेरा कोई मंशा न था
जो समझ सकता पसे-अलफ़ाज़* मानी का तिलिस्म
इस भरी बस्ती में कोई शख़्स भी ऐसा न था।
1. नाला-फरियाद
2. दम बखुद-मौन
3. आफ़ियत-शांति
4. मताए -दीगराँ-पराया धन
5. बर्गे-ख़िज़ाँ-आसार-पतझड़ का पत्ता
6. शाख़े-लरज़ाँ-काँपती हुई डाली
7. पसे-अलफ़ाज़-शब्दों की पृष्ठभूमि