कोई सुने न सुने अर्ज़-ए-हाल करता जा / मज़हर इमाम
कोई सुने न सुने अर्ज़-ए-हाल करता जा
न रूक जवाब की ख़ातिर सवाल करता जा
समुंदरों को हवा में उछाल दे इक बार
तू बा-हुनर है तो ये भी कमाल करता जा
बदल दे हिज्र की साअत को वस्ल लम्हो में
बना के काम को आसाँ मुहाल करता जा
तू बे-मिसाल अगर है तो मुझ में ज़ाहिर हो
मुझे भी अपनी तरह बे-मिसाल करता जा
क़रीब आ कि उजालो के हार पहना दूँ
मुझे असीर-ए-शब-ए-ला-ज़ावाल करता जा
शिकस्त ओ फ़तह नसीब से है वले ऐ दिल
मिले हैं ज़ख़्म तो ख़ुद इंदिमाल करता जा
यहीं कहीं तिरा माज़ी भी साँस लेता है
ग़ुजरने वाले बस इतना ख़याल करता जा
तिरा हुनर तिरी दानाई बद-दुआ है ‘इमाम’
ज़वाल तेेरा म़ुकदर कमाल करता जा
सुख़न-नवाज़ मिरे नुक्ता-चीं मिरे नाक़िद
मुझे शिकार-ए-इताब-ओ-जलाल करता जा
बहुत से तीर हैं तेरी कमाँ में कै़द अब भी
मिरे लहु से क़बा अपनी लाल करता जा
मिरे ज़वाल पे कर सब्त आख़िरी तहरीर
ये कार-ए-नेक भी ऐ ला-ज़वाल करता जा