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कोठे पर / नज़ीर अकबराबादी

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हमेशा आके वह वाला सिफ़ात<ref>उच्च विशेषताओं वाला</ref> कोठे पर।
सुखु़न के घोले है कंदो नबात कोठे पर।
लगा रक़ीब की दहशत<ref>भय</ref> से घात कोठे पर।
रहे जो शब को हम उस गुल के साथ कोठे पर।
तो क्या बहार से गुज़री है रात कोठे पर॥

इधर से साक़ीयो मुतरिब<ref>गायक</ref> भी हो गये यक जा।
इधर वह पार उधर नाच राग भी ठहरा।
अ़जब बहार की एक अन्जुमन हुई बरपा।
यह धुम धाम रही सुबह तक, अहा, हा, हा।
किसी की उतरे है जैसे बरात कोठे पर॥

हिजाब<ref>परदा, लज्जा</ref> दूर हुआ दौरे जाम की ठहरी।
लगीं निकलने जो कुछ हसरतें थीं दिल में भरी।
बहुत दिनों से इसी बात की तमन्ना थी।
मकां जो ऐश का हाथ आया गै़र से ख़ाली।
पटे के चलने लगे फिर तो हाथ कोठे पर॥

यह ऐश सुनके रक़ीबों के दिल में आग लगी।
तो चोर बन के चढ़े, और मुंडेर आ पकड़ी।
इधर वह यार, उधर हमने लाठी पाठी की।
गिराया, शोर किया, गालियां दीं, धूम मची।
अजब तरह की हुई वारदात कोठे पर॥

अकेले बैठे हो तुम पुश्ते बाम पर इस आन।
हमें बुलाओ तो कुछ ऐश का भी हो सामान।
यह बात पर वही परदे में लीजै अब पहचान।
लिखें हम ऐश की तख़्ती को किस तरह ऐ जान?
क़लम ज़मीन के ऊपर, दवात कोठे पर।

मियां यह हाथ पे हम दिल जो अब लिये हैं खड़े।
और एक बोसे की क़ीमत पे बेचते हैंगे।
जो लीजिए तो यह तरकीब खू़ब है प्यारे।
कमंद जुल्फ़ की लटका के दिल को ले लीजे।
यह जिन्स यूं नहीं आने की हाथ कोठे पर।

किधर छुपे हो? ज़रा मुंह तो हमको दिखलाओ।
हमारे हाल के ऊपर भी कुछ तरस खाओ।
सभों से सुनते हो, हर एक से कहते हो आओ।
खु़दा के वास्ते ज़ीने की राह बतलाओ।
हमें भी कहनी है कुछ तुमसे बात कोठे पर॥

हुआ जो वस्ल मयस्सर<ref>प्राप्त</ref>बफ़ज्ले रब्बे क़दीर<ref>अल्लाह की कृपा से</ref>
किनारो बोस की आपस में फिर हुई तदबीर।
हुए जो ऐश, तो किस किस की अब करें तक़रीर?
लिपट के सोये जो उस गुलबदन के साथ ”नज़ीर“।
तमाम हो गई हल मुश्किलात कोठे पर॥

शब्दार्थ
<references/>