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कोणार्क / गायत्रीबाला पंडा / शंकरलाल पुरोहित
Kavita Kosh से
बिना हलचल हुए
वर्ष पर वर्ष
स्थिर मुद्रा में खड़े रहना ही
हमारी अभिनवता, कोई कहता।
हमारी नग्नता ही हमारा प्रतिवाद
और दूसरा स्वर जुड़ता।
उल्लास और आर्तनाद को माँग-माँग
पत्थर बन गए,
हेतु होते विस्मय का,
पथिक का, पर्यटक का।
प्राचुर्य और पश्चात्ताप में गढ़ा
एक कालखंड
क्या हो सकता है कोणार्क?
समय है निरुत्तर।