भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोयल / हरिऔध
Kavita Kosh से
कूक करके निज रसीले कंठ से।
है निराला रस रगों में भर रही।
कोयले से रंग में रंगत दिखा।
हैं दिलों में कोयलें घर कर रही।
रंग बिरंगे फूल हैं फूले हुए।
है दिसायें रंग बिरंगी गूँजती।
चहचहा चिड़ियाँ रही हैं चाव से।
भौंरे गूँजें, कोयलें हैं कूजती।
मन मरा या दिल हुआ कुछ और ही।
कोंपलों में है छटा वैसी कहाँ।
सुन जिसे जी की कली खिलती रही।
कोयलों में कूक है ऐसी कहाँ।
देख करके दुखी जनों का दुख।
दुंद है वह मचा रही पल पल।
या किसी का कराहना सुन कर।
बेतरह है कराहती कोयल।
जो हुआ है लालसाओं का लहू।
लाल फल दल है उसी में ही रँगा।
है उसी के दर्द कोयल कूक में।
कोंपलों में है वही लोलू लगा।