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कोसों तक अँधेरा / अमरजीत कौंके

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मैं जिस रौशनी में बैठा हूँ
मुझे वह रौशनी
मेरी नहीं लगती
इस मसनूई सी रौशनी की
कोई भी किरण
ना जाने क्यों
मेरी रूह में
नहीं जगती

जगमग करता
आँखें चैंध्यिाता
यह जो रौशन चौफेरा है
भीतर झाँक कर देखूं
तो कोसों तक अँधेरा है
कभी जब सोचता हूँ बैठ कर
तो महसूस यह होता
कि असल में
भीतर दूर तक फैला हुआ
यह अँधेरा ही मेरा है

मेरे भीतर
अँधेरे में
मुझे सुनता
अक्सर होता विलाप जैसा
मेरे सपनों से लिपटा है
यह जो संताप जैसा
यह रौशनी को बना देता
मेरे लिए एक पाप जैसा

यह झिलमिलाती रौशनी
यह जो रौशन चुपफेरा है
भीतर झाँक कर देखूँ
तो कोसों तक अँधेरा है...।