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कोई कहते 'संत' मुझे, कुछ कहते 'प्रेमी भक्त महान' / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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कोई कहते ‘संत’ मुझे, कुछ कहते ‘प्रेमी भक्त महान’।
कैसा था? या था, मैं अब कैसा? या हूँ सब तुमको जान॥
अगणित दुरितों से, दोषों से, दुर्भावों से हूँ भरपूर।
राग-कामना-कोप-दभ-मद-मान-मोह-ममतासे चूर॥
सदा छिपाता हूँ दोषोंको, साधु-वेष करता बदनाम।
घोर अशान्त, भयानक जलती चिन्ताकी भट्ठी अविराम॥
करुणासिन्धु पतित-पावन प्रभु! सर्व-सुहृद तुम, सहज उदार।
विरद-हेतु प्रस्तुत रहते नित, करनेको तुम पतितोद्धार॥
दीनबन्धु! मैं महापतित, अति दीन, पड़ा हूँ चरणप्रान्त।
दोष हरणकर सारे, मुझे बना लो निज सेवक शुचि, शान्त॥