मेरी तो छाती है पत्थर-
जिसके समतल पक्के पथ पर-
अब तक कितने ही निकल चुके-
विकराल प्रलय-रथ के पहिये;
यह जान सकेगा कौन कभी!
चख-चख कर, रख कर नयन खुले,
मुसका-मुसका कर, बिन निगले,
सिर-आँखों ले अपनी प्याली-
मैंने कितने विष-घूँट पिये;
यह मान सकेगा कौन कभी!
निशि के अंचल की छाया में-
ज्वाला ले मन में, काया में,
तारों की किरणों से मैंने-
उर के हैं कितने घाव सिये;
पहचान सकेगा कौन कभी!
पीड़ा के कोमल गानों से,
भीनी-मीठी मुसकानों से
मैंने हैं कितने लोकों के-
अब तक नीरव दिग्वििजय किये;
यश-गान करेगा कौन कभी!