भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कौन कहता है कि अपने ओंठ खोलो / कमलकांत सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन कहता है कि अपने ओंठ खोलो।
मौन ही रहकर सुनो तुम और बोलो।

ओंठ बोलें यह ज़रूरी तो नहीं है
आँख सब कुछ बोल देती है, न बोलो।

हाँ, हृदय में चाह काफी है किसी की
चाहना से चाहतों की चाह तो लो।

एक मन है जो कभी बंधता नहीं है
बंधनों से मुक्त रहकर नाच तो लो।

प्यास की या तृप्ति की जब बात हो तो
आप तो बस मुस्कुरा के मौन हो लो।

मन-कमल ये आपको अर्पित हुआ है
आप भी अर्पित कमल को या न बोलो।