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कौन किसी की जान पे यारो आफ़त बन कर आता है / ज़ाहिद अबरोल

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कौन किसी की जान पे यारो आफ़त बन कर आता है
अपनी करनी का साया इंसान को खाए जाता है

जिस्म की ज़ंजीरों से बड़ी हैं ज़िहन-ओ-दिल<ref>मस्तिष्क और हृदय</ref> की ज़ंजीरें
क़ैद से बढ़ कर क़ैदी होने का एहसास सताता है

वो पागल है हम सब उसको पागल ही तो कहते हैं
फिर क्यूं उस की बातें सुन कर हर कोई डर जाता है

शुहरत<ref>प्रसिद्धि</ref> और रुस्वाई<ref>बदनामी</ref> दोनों एक ही कोख से जन्मी हैं
इन दोनों में आसानी से फ़र्क़ कहां मिल पाता है

मुझको बांध न पाया कोई मैं आज़ाद परिंदा हूं
धरती और आकाश से मेरा जनम- जनम का नाता है

जिसको गर्म तवे पर जलती रोटी का भी होश नहीं
उस मासूम से चेहरे को “ज़ाहिद” तू क्यूं याद आता है

शब्दार्थ
<references/>