दर्पण रहा देखता हरपल खुद को ही पर देखन पाया।
अमरत भरने को निकला था जाने क्यों विषघट भर लाया ?
जब जब देखा है चन्दा को सजल हुए तब तब दृग मेरे
उसने जब जब देखा मुझको तब तब जाने क्यों मुस्काया ?
किसने गीत अनोखा गाया गूँज रहा जो मेर उर में,
मुझसे मुझको चुरा ले गया कौन न जाने छिपकर आया ?
किसने गंध भरी फूलों में कलियों में मुस्कानों जगायी।
किसने जीवन के बसन्त में मधुर सुनहरा ज्वार जगाया ?
यही सोचता रहा स्वप्न का उपवन नीरस साज सजाए
किसने मधुर बहारें भेजी किसने मलयानिल लहराया ?
अन्तहीन वेदना सृष्टि की उर दर्पण में रही उमगती
पर अपनी ही पीड़ाआ का मुझको बोध नहीं हो पाया।