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कौन मित्र है, कौन शत्रु है, इस युग की यह बात न पूछो / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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कौन मित्र है, कौन शत्रु है, इस युग की यह बात न पूछो
मिली कहाँ कब किनसे हमको क्या-क्या है सौगात न पूछो

पत्थर तो पत्थर होते हैं, उनसे शिक़वा ओर गिला क्या
फूलों से भी मिले हमें कैसे-कैसे आघात न पूछो

रमते-राम फ़क़ीरों को दुनिया में ठौर-ठिकाना क्या है
कहाँ हमरा दिन होता है और कहाँ पर रात न पूछो

डाल दिया दिल की दुनिया में डेरा सभी ग़मों ने आकर
लौट गई कब दर से मेरे ख़ुशियों की बारात न पूछो

मंज़िल से दस-पाँच क़दम की दूरी पर साहस खो बैठे
जीती बाज़ी किस मौके़ पर हुई किस तरह मात न पूछो

बलिदानों की बुनियादों पर आज़ादी का भवन खड़ा है
अमर शहीद हुए हैं कितने ज्ञात और अज्ञात न पूछो

मेरे घर जो बादल आए, सभी आंधियों ने बहकाए
कब-कब इन आँखों से बरसी आँसू की बरसात न पूछो

सुमन माल समझा था जिनको, वही भयानक विषधर निकले
साथ ज़िन्दगी के गुज़रे हैं, कब कैसे हालात न पूछो

चले गए आकर कितने ही, रहा न नाम-निशान किसी का
कैसे-कैसे हुए जगत् में धनी-बली-विख्यात न पूछो

दीपशिखा के अन्तर्मन की पीड़ा को कोई क्या जाने
झेले हैं छाती पर उसने कितने झंझावात न पूछो

दिल आख़िर शीश ही तो था, ठेस लगी झट चूर हो गया
कोमल मन पर कैसे-कैसे हुए कुठाराघात न पूछो

यह दहेज का दानव कितनी की कलियों को निगल गया है
झुलस गए ज्वाला में कितने कनक छरी से गात न पूछो

रक्त चूस कर मानवता का, दानवता फल-फूल रही है
बदल गए काली रातों में कितने स्वर्णिम प्राप्त न पूछो

आज वतन के रखवाले ही चोर-लुटेरे बन बैठे हैं
‘मधुप’ तड़प कर रह जाते, दिल के कितने ज़ज्बात न पूछो