कौन रहता है यहाँ क़ुर्ब में काशाने में / रवि सिन्हा
कौन रहता है यहाँ क़ुर्ब<ref>नज़दीकी</ref> में काशाने<ref>घर</ref> में
ऐसी बेगानगी देखी किसी बेगाने में
ख़्वाहिशें कौन गिने दिल की है वुसअ'त<ref>आयतन</ref> कितनी
एक मूरत की जगह फिर भी सनम-ख़ाने<ref>मन्दिर</ref> में
दिल कहानी से बहलता ही नहीं है ऐ अदीब<ref>साहित्यकार</ref>
क्या हक़ीक़त की भी आमद हुई अफ़साने में
ग़म-गुसारी<ref>सांत्वना देना</ref> का चलन कुछ तो अभी बाक़ी है
ख़ुद-नुमाई<ref>आत्म-प्रदर्शन</ref> का चलन देखिये ग़म-ख़ाने में
कूचा-ए-ज़ीस्त<ref>ज़िन्दगी की गलियाँ</ref> में जो खेंच के ले जाते थे
अब तो वो लोग भी आते नहीं मय-ख़ाने में
अब्र<ref>बादल</ref> हैं कौन से दिन-रात मसाइब<ref>विपत्तियाँ</ref> बरसें
किस समन्दर की दुआ आ गई वीराने में
एक दर्रे से यहाँ आ गयीं सदियाँ सारी
मुस्तक़िल<ref>स्थाई</ref> सी हैं यहाँ उज़्र उन्हें जाने में
दहर<ref>युग</ref> तारीक़<ref>अँधेरा</ref> ये कश्कोल<ref>भीख का कटोरा</ref> में आतिश माँगे
राख में कुछ तो बचा हो किसी दीवाने में
ख़ाक में रूह भी डाले वो हुनर और ही था
कोई पत्थर ही रहेगा तिरे बुत-ख़ाने में