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कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं / इमाम बख़्श 'नासिख'

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कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
कौन गुल है जो मिरा मस्कन ब-रंग-ए-बू नहीं

जाम-ए-नर्गिस में कहाँ शबनम जो निकले आफ़्ताब
यार के आगे मिरी आँखों में इक आँसू नहीं

याद-ए-गेसू में हुआ मेरा ये धज्जी सा बदन
मुझ पे फबती कहते हैं मूबाफ़ है गेसू नहीं

जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
देख कर कहते हैं सब तावीज़ है बाज़ू नहीं

देखे हैं हँसने में जिस दिन से दुर-ए-दनदान-ए-यार
चैन मिस्ल-ए-ग़ौहर-ए-ग़लताँ किसी पहलू नहीं

इश्क़ में बदमस्त हूँ मैं पर कोई वाक़िफ़ नहीं
नश्शा है जाम-ए-मय-ए-उल्फ़त में लेकिन बू नहीं

ज़ुल्फ़-ए-जानाँ में नहीं कोई दिल-ए-वहशी असीर
ये अजब तातार है जो एक भी आहू नहीं

हो गया है ये क़िरान-ए-आफ़्ताब ओ माह-ए-नौ
यार के रूख़्सार-ए-आतिश-रंग पर अबरू नहीं

हो गया है मिस्ल-ए-मू तार-ए-निगह अपना सियाह
आगे आँखों के सनम जब से तिरे गेसू नहीं

रात दिन नाकूस कहते हैं ब-आवाज़-ए-बुलंद
दैर से बेहतर है काबा गर बुतों में तू नहीं

क़ुमरियाँ दीवानी हैं क्यूँकर गले में हो न तौक़
बाग़ में इक सर्व मिस्ल-ए-क़ामत-ए-दिल-जू नहीं