कौन हो तुम / अनिल कार्की
हिन्दी के प्रमुख कवि आलोक धन्वा की कविता ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ को पढ़ते हुए
वो तुम नहीं थी
जिसकी याद जंग लगे टिन जितनी भी नहीं रही
न ही तुम क्षितिज पर फ़सल काट रही औरतों में हो।
तुम कौन हो?
प्रश्नवाचक चिह्न की तरह
जिसका उत्तर
पूर्ण विराम के साथ नहीं दिया जा सकता।
एक पुरानी किताब
या एक लम्बी कविता
जिसका रचना-विधान जानने की कोशिश कर रहा हूँ
इन दिनों
जिसकी लय
जिसका अर्थ
जिसमें बुनी गयी हो फैंटेसी
प्रतीक-बिम्ब
अनुभूत यथार्थ, अजनबियत, मिथक, नाटकीयता
और एक विचार विसंगतियों के बीच
जिससे पनपता है
कविता जैसी किसी चीज़ का अस्तित्व
फिर भी कहीं किसी कोने में
केवल एक प्रश्न
सदैव के लिए
युगों से
युगों के बाद भी
जिसका एकान्त होने न होने के बीच सुलगता है
सदियों के भीतर
पुआल और डनलप के गद्दों के बीच की स्थिति-सा
माणा<ref>उत्तराखण्ड का सीमान्त गाँव</ref> या गुंजी<ref>उत्तराखण्ड का सीमान्त गाँव</ref> की अन्तिम सीमा पर
देश की सीमा के साथ बाँधा गया भूभाग हो तुम
या फिर समझौते की कोई एक्सप्रेस
जिन्हें तय करते हैं देश के सत्ताधारी लोग
फिर भी इस आधी रात को
जब हीटर के तार सुलग रहे हैं
तब कैसे सुलगती है कविता
सेंचुरी के पन्नों के भीतर
रेनोल्ड्स की इस क़लम से
बेहतर शब्द निकाल लेने की ज़िद कहाँ तक जायज़ है
जब तुम सुलग रही हो
मध्य हिमालय की बर्फ ढँकी पहाड़ियों में कहीं
तब नदियाँ कैसे दे सकती हैं
शीतल पानी
फिर भी तुम्हारे अपने किले हैं
तुम्हारे अपने झण्डे हैं
तुम्हारे अपने गीत हैं
वही गीत जो तुम्हारा ख़सम गाता था
गुसाईयों<ref>सवर्ण</ref> के दरबार में
और तुम नाचती थी फटी धोती में
ओ!
हुड़किया<ref>हुड़ुक बजाने वाला</ref> की हुड़क्याणी<ref>हुड़ुक बजाने वाले के साथ नाचने वाली उसकी घरवाली</ref>
तुम भुंटी थी
और तुम्हारा ख़सम सुन्दरिया
जिसने आजीवन दरवाज़े पर बैठकर
गुसाईयों के घर में चाय पी —
गिलास धोकर उल्टा कर दिया
ताकि सूख सके
ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी
तुम्हारे लिए कौन था?
तुम्हारे लिए कौन है?
काने धान की पोटली भर सम्वेदना थी तुम
या ठाकुरों के कुल देवता के मन्दिर से बचा हुआ
गड्ड-मड्ड शिकार-भात
और कुछ नहीं
फिर भी कौन थी तुम
जिसके होने में महकता रहा
मध्य हिमालय का लोकजीवन!