कौवा / अनामिका अनु
कल तक यही थी
बड़ी आँखों वाली मालू
और फुदकता निरंजन
जहाँ निरंजन के फटी आँखों
की पुतलियाँ पसरी हैं
वही उसने रोपा था तीरा मीरा
के बीजों को
चिथड़े तन पर जो हरा छींटदार टुकड़ा है
जिसे चींटियों के झुण्ड पूरब की ओर ले जा रहे हैं
मालू के आठवें जन्मदिन वाली फ्राॅक का है ।
ये सब मैं इसलिए बता पा रहा हूँ
क्योंकि मैं ही वह कौवा हूँ
जो आम के पेड़ पर बैठकर
रोज़ उन्हें निहारा करता था
कई बार उन बच्चों ने बाँटा था
मुझसे अपने हिस्से का खाना
खेली थी मुझ संग लुक्का-छिपी
मैं आज भी कभी-कभी रसोई की ढही उस खिड़की के पास
रोटी के टुकड़े तलाशता हूँ
जो बढ़ा देती थी
रसोई पकाती
बच्चों की माँ मुझे देखते ही
बच्चों के पिता काले पिट्ठू बैग
टाँग रोज़ चले जाते थे दफ़्तर
और कब लौटते थे
नहीं पता
क्योंकि शाम ढले मैं भी
लौट जाता था घोंसले पर
जो पास के नारियल के पेड़ पर था
बस, कुछ एक बम गिरे था
ढह गए सब
प्रशासन, परिवार, घर
और सबसे ज़ोर से ढहे
सपने मेरे, इनके, उनके और न जाने कितने बच्चों
की आंखों के
कई दिनों तक रहा मण्डराता
बच्चों के आँखों की तलाश में
ढेर लगे लाशों के चिथड़ो में
चोंच मारता
बारूद मिले रक्तों से
कचकच चोंचों को
लाशों से पोंछता
तब दिखी
निरंजन के आँखों की वह पुतली
उसकी आँखों में हरी शाखें
नए पुष्पों के इन्तज़ार में थी ।
आँखें फटी थीं
पलकें कहीं दूर गिरी थीं ।