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कौवे उड़ा रही है माँ / मीठेश निर्मोही

स्कूल से लौटते
बच्चों की राह जोहती
रह-रह कर दरवाज़े से
झाँकती है वो

महसूसता हूँ मैं
गाँव में
कौवे उड़ा रही है माँ
टूटी खटिया पर गुमसुम-से बैठे
बाबा से बतियाती
कि अबके बरस देवझूलनी ग्यारस के दिन तो
निश्चय ही पहुँचूंगा मैं
नाड़ी (छोटा तालाब) में नहाने
ककड़ी-मतीरे खाने।