भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या उम्मीद करे हम उन से जिनको वफ़ा मालूम नहीं / ज़फ़र गोरखपुरी
Kavita Kosh से
क्या उम्मीद करे हम उन से जिनको वफ़ा मालूम नहीं
ग़म देना मालूम है लेकिन ग़म की दवा मालूम नहीं
जिन की गली में उम्र गँवा दी जीवन भर हैरान रहे
पास भी आके पास न आये जान के भी अंजान रहे
कौन सी आख़िर की थी हमने ऐसी ख़ता मालूम नहीं
ऐ मेरे पागल अर्मानों झूठे बंधन तोड़ भी दो
ऐ मेरी ज़ख़्मी उम्मीदों दिल का दामन छोड़ भी दो
तुम को अभी इस नगरी में जीने की सज़ा मालूम नहीं