क्या किया तुमने? / प्रीति 'अज्ञात'
पहाड़ियों के पीछे
छिपता सूरज
रोज ही उतर जाता है
चुपचाप उस तरफ
बाँटता नहीं कभी
दिन भर की थकान
नहीं लगाता, दी हुई
रोशनी का हिसाब
अलसुबह ही ज़िद्दी बच्चे-सा
आँख मलता हुआ
बिछ जाता है आँगन में
देने को, एक और सवेरा
हवाओं ने भी कब जताया
अपने होने का हुनर
चुपचाप बिन कहे
क़रीब से गुजर जाती हैं
जानते हुए भी, कि
हमारी हर श्वांस,
कर्ज़दार है उनकी
नहीं रूठीं, नदियाँ भी
हमसे कभी
बिन मुँह सिकोड़े
रहीं गतिमान
समेटते हुए
हर अवशिष्ट, जीवन का
साथ देना है तुम्हारा
तन्हाई में
यही सोच, चाँद भी तो
कहाँ सो पाता है
रात भर
देखो न, तारों संग मिल
चुपके से खींच ही लाता है,
चाँदनी की उजली चादर
ये उष्णता, ये उमस
आग से जलती धरती
की है कभी, किसी ने शिकायत?
उबलता हुआ खलबलाता जल,
स्वत: ही उड़ जाता है, बादलों तक
और झरता है
शीतल नीर बनकर.
सृष्टि में ये सब होता ही रहा है
सदैव से, तुम्हारे लिए
और तुम?
क्या किया तुमने?
उखाड़ते ही रहे न
हर, हरा-भरा वृक्ष
अड़चन समझकर.
चढ़ा दिया उसे अपनी
अतृप्त आकांक्षाओं
की अट्टालिकाओं पर
और फिर गाढ दीं
उसी बंज़र ज़मीं में
अपनी अनगिनत,
औंधी, नई अपेक्षाएँ