भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या क्या दिलों का ख़ौफ़ छुपाना पड़ा हमें / जलील आली
Kavita Kosh से
क्या क्या दिलों का ख़ौफ़ छुपाना पड़ा हमें
ख़ुद डर गए तो सब को डराना पड़ा हमें
इक दूसरे से बच के निकलना मुहाल था
इक दूसरे को रौंद के जाना पड़ा हमें
अपने दिए को चाँद बताने के वास्ते
बस्ती का हर चराग़ बुझाना पड़ा हमें
वहशी हवा ने ऐसे बरहना किए बदन
अपना लहू लिबास बनाना पड़ा हमें
ज़ैली हिकायतों में सभी लोग खो गए
क़िस्सा तमाम फिर से सुनाना पड़ा हमें
‘आली’ अना पे सानहे क्या क्या गुज़र गए
किस किस की सम्त हाथ बढ़ाना पड़ा हमें