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क्या क्या न हम पे गुज़रा यहां हादिसात में / कुमार नयन

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क्या क्या न हम पे गुज़रा यहां हादिसात में
कहते थे कुछ न होगा दयारे-हयात में।

आये हैं वो मगर ये मिरा दिल तो बुझ चुका
कैसे हो दीद उनकी अंधेरी सी रात में।

हासिल का क्या कहूँ ये मिला ही नहीं कभी
लज़्ज़त बहुत मिली है मगर तेरी बात में।

छोटे-से मुंह से बात बड़ी क्या कहूँ कभी
अब कुछ न रह गया है तिरी कायनात में।

की किसने वारदात ये मालूम है हमें
हम भी गये थे भूल से तेरी बरात में।

हैं और भी तुम्हारे तो हमराह हमसुखन
करते हो क्यों हमें वो बयां वाक़यात में।

समझोगे आदमी को जो मुहरे तो मां क़सम
होती रहेगी मात सियासी बिसात में।