भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही
मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही
जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही
आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही
इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही
मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही
शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही
खुल कर मिला न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही