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क्या दिल है अगर जलवा-गह-ए-यार न होवे / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
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क्या दिल है अगर जलवा-गह-ए-यार न होवे
है तूर से क्या काम जो दीदार न होवे
कुछ रंग नहीं नग़मा ओ आहंग में उस के
बुलबुल जो बहाराँ में गिरफ़्तार न होवे
दिल जल जो गया ख़ूब हुआ सोख़्ता बेहतर
वो जिन्स ही क्या जिस का ख़रीदार न होवे
शमशाद को देवे है क़ज़ा वार के तुझ पर
जो जामा तेरे क़द पे सज़ा-वार न होवे
नईं बाग़-ए-मुहब्बत में ‘यक़ीं’ उस को कहीं चैन
जिस दिल में कि दाग़ों सेती गुलज़ार न होवे