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क्या नहीं था, यह नहीं हूँ, क्या न होऊँगा / श्यामनन्दन किशोर

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क्या नहीं था, क्या नहीं हूँ, क्या न होऊँगा

क्या नहीं था, क्या नहीं हूँ, क्या न होऊँगा,
स्वत्व लेकर जो मुझे दोगे, नहीं लूँगा!

पाँच वर्षों बाद हर जो द्वार पर जाते
बेचना ही पड़े क्यों बेचूँ भिखारी से,
क्या कहे या लिखे का उसके भरोसा हो
जो नशे में धुत्त या मरता खुमारी से,

जो चढ़ाए गए ऊपर, सीढ़ियाँ वे धरें,
मैं जमीं पर खड़ा, नीचे कहाँ उतारूँगा।

हूँ सही दुबला, मगर ताकत नहीं कम है-
मैं हरौठी बाँस हूँ, फोंका नहीं।
पाँव छूकर ही छला विनयावनत ने।
प्रेम में जो खा गया, धोखा नहीं।

ओ विराटो! चाहते वामन अगर बनना
मैं बली कुछ दान देने में न हिचकूँगा।
है नहीं इतिहास ही साक्षी बड़प्पन का-
प्रकट से ज्यादा यहाँ गुमनाम हैं
नामियों से बहुत ऊँचे आदमी-
सिद्ध हो जाते बड़े बदनाम हैं।

बन दधीचि गए असंख्य नगण्य प्राणी
हर किसी भी द्वीप में मिलता नहीं मूँगा।

(18.6.1977)