क्या नाम दूंगा / राम लखारा ‘विपुल‘
जिंदगी के पृष्ठ पढ़कर सोचता हूँ
मैं तुम्हारी याद को क्या नाम दूंगा?
पांव में कांटे चुभे थे इस तरह से,
फूल माथे पर कभी भी धर न पाया।
देव ने वरदान में मांगा मुझे पर,
मैं समय की साध पूरी कर न पाया।
आरती की सांझ गुजरी सोचता हूँ,
मैं नयन के देव को क्या धाम दूंगा?
तुम अगर आते तो भंवरे गुनगुनाते,
तुम अगर आते कली हर मुस्कुराती।
तुम अगर आते तो बासंती बहारें,
रूप की हद क्या है यह पहचान पाती।
चाँद जब ठहरा नहीं तो सोचता हूँ,
किस सितारें को अंधेरी शाम दूंगा?
तोड़ने को तोड़ डाले तंत्र लेकिन,
राज की यह बात फिर भी अनछुई है।
भाव ने नापी अभावों में उड़ानें,
साधनों से साधना मद्धम हुई है।
अंतरे इतने पड़े है सोचता हूँ,
गीत को किस मोड़ पे आराम दूंगा?
जिंदगी के पृष्ठ पढ़कर सोचता हूँ,
मैं तुम्हारी याद को क्या नाम दूंगा?