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क्या बनी बात अगर बात बनाई न गई / रमेश तन्हा

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क्या बनी बात अगर बात बनाई न गई
होंठ हिलते रहे आवाज़ लगाई न गई।

हम तो बेहिस भी हुए, पीर पराई न गई
दिल में कुछ ऐसी लगी थी कि बुझाई न गई।

धूप के शहर में घर कैसा कहां का साया
रेत ही रेत थी, दीवार उठाई न गई।

आइना मुझको बना डाला हरिक मंज़र का
मेरी पहचान मगर मुझ से कराई न गई।

ग़म की बेदाद के मारों का तड़पना मालूम
उम्र भर जिन के लिए मौत न आई, न गई।

तन बदन अपना जलाते रहे हर शब हम भी
आंख लेकिन कभी सूरज से मिलाई न गई।

मैं ने चाहा था ख़लाओं का अहाता कर लूँ
लेकिन इक हद से परे शमअ जलाई न गई।

दिल में साअत कोई मेहमान बनी बैठी थी
रात रानी की महक उस से भुलाई न गई।

सुर्खियां हाथों में कश्कोल लिए बैठी थीं
ऐसी आफ़त हो मगर वक़्त से ढाई न गई।

पेश-मंज़र से तो बढ़कर कहीं पस-मंज़र था
पेश-मंज़र से मगर आंख हटाई न गई।

संग-बारी से भी कब बदला मुक़द्दर उसका
ठहरे पानी पे जो हावी थी वो काई न गई।

अपने अहसास को फ़ितनों से बचाये रखना
कब हवाओं से कोई शमअ बुझाई न गई।

मैं बहुत खुश था पपोटों पे हथेली रख कर
दिल था वीराना कोई जोत जलाई न गई।

वक़्त की रेत कदमों के निशां किस के हैं
मुझ से पहले तो कोई चीज़ भी आई न गई।

मेरी परछाईं ने क़द इतना बढ़ाया सरे-शाम
आंख से फिर कोई तस्वीर बनाई न गई।

जिन लकीरों से थी कायम मिरी हस्ती 'तन्हा'
उन लकीरों से कभी मेरी लड़ाई न गई।