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क्या बैठे हो / श्रीनाथ सिंह
Kavita Kosh से
तेज हवा के झोंको पर चढ़,
आ पहुंचे हैं बादल के दल।
पंख खोल उड़ती हैं बूंदें,
मची हूई है वन में हलचल।
सुख से पेड़ पहाड़ नहाते,
मोर नाचते मेंढक गाते।
भूल दुखों को आशा से भर,
खेत किसान जोतने जाते।
अन्धकार से कहता जुगनू,
राह नहीं हूँ मैं निज भूला।
जर्रे जर्रे में जीवन है,
कलियों ने है डाला झूला।
क्या बैठे हो घर में भाई,
चलो प्रकृति की छटा निहारें।
उगते खेत , उमड़ती नदियाँ,
घिरते घन की घटा निहारें।