क्या मिला तुम्हें / सरस दरबारी
क्या मिला तुम्हें!
हर शाम अब दरवाज़े पर दस्तक न होगी-
ठहाकों की गूँज, हँसी की फुलझड़ी न होगी
अब कौन कन्धों पर उन्हें अक्सर घुमायेगा
ऊँगली पकड़ उनकी, उन्हें चलना सिखाएगा
लाठी बनेगा कौन बुढ़ापे की उनकी-
कौन कन्धों पर रखकर उन्हें शमशान ले जायेगा
बहकावे में आ तुमने, उजाड़े हैं कई घर
बोलो
क्या मिला तुम्हें!
सपनों को कहाँ खोजें, नैनों में जो भरे थे
आँसू ही जिनके जीवन की अब धरोहर हैं
मासूम सी आँखों में-सवाल उठ खड़ा हुआ है
क्यों यह हुजूम आज मेरे घर में यूँ उमड़ा है
खिलने के दिनों में, उजाड़े कई बचपन बोलो
क्या मिला तुम्हें!
जीवन तो यूँही चलता है
फिर चलता रहेगा
ज़ख्मों को ढाँप हर कोई यूँ बढ़ता रहेगा-
दहशत ने रोका है कभी, न रोक पायेगा!
जीना तो है ज़रूरी- तू भी जान जायेगा!!
फिर अपनी आत्मा को बेच
क्या मिला तुम्हें-
लाखों की बददुआ को सींच बोलो
क्या मिला तुम्हें!!