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क्या मैं पेड़ होता / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
जैसे किसी झर-झर-झरते
झरने के किनारे के समय में
आसमान को अपनी आँखों में समोता
खड़ा हो कोई वृक्ष
अपने पत्ते-पत्ते में दर्ज करते
अनगिनत जन्मों का इतिहास
देखता हो
इहकाल की रफ़्तार
अविचलित और स्थिर
अपनी ज़मीन में
वैसे ही देख सकता
अगर मैं अपना समय
तो क्या मैं पेड़ होता ?