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क्या याद कर के रोऊँ कि कैसा शबाब था / लाला माधव राम 'जौहर'

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क्या याद कर के रोऊँ कि कैसा शबाब था
कुछ भी न था हवा थी कहानी थी ख़्वाब था

अब इत्र भी मलो तो तकल्लुफ़ की बू कहाँ
वो दिन हवा हुए जो पसीना गुलाब था

महमिल-नशीं जब आप थे लैला के भेस में
मजनूँ के भेस में कोई ख़ाना-ख़राब था

तेरा क़ुसूर-वार ख़ुदा का गुनाहगार
जो कुछ कि था यही दिल-ए-ख़ाना-ख़राब था

ज़र्रा समझ के यूँ न मिला मुझ को ख़ाक में
ऐ आसमान मैं भी अभी आफ़्ताब था