दिल्ली के सिख विरोधी दंगों से दुखी होकर
क्या सोचके वो शातिर ये चाल चला होगा ।
हर बार रसन उसकी और अपना गला होगा ।।
गो शाख़ भी नाज़ुक थी बोदा था नशेमन भी
फिर भी तो ये हंगामा कुछ देर चला होगा ।
खंजर उगे आते हैं इंसान के पहलू से
तो आग का दरिया भी आँखों में पला होगा ।
लो हाथ से नाखुन भी बरहम हुए जाते हैं
अब ऐसी ख़ुदाई में बन्दे का भला होगा ।
कोई हमें बतलाए तब ख्वाब पे क्या बीती
उस रोज़े-क़यामत जब सूरज न ढला होगा ।।
हाँ ख़ून का रिश्ता था भाई ने भला क्यूँकर
भाई का लहू अपने चेहरे पे मला होगा ।
दिल और जनूं का ये क़िस्सा कोई क़िस्सा है
वो जलके बुझा होगा ये बुझके जला होगा ।।
1 अगस्त 1988