क्या सोचा, क्या हुआ / गोपालप्रसाद व्यास
मैं हिन्दी का अदना कवि हूं,
कलम घिसी है, गीत रचे हैं।
व्यंग्य और उपहास किए हैं,
बहुत छपे हैं, बहुत बचे हैं।
मैंने भी सपने देखे थे,
स्वतंत्रता से स्वर्ग मिलेगा।
मुरझाए जन-मन-मानस में,
प्रसन्नता का कलम खिलेगा।
इसीलिए ही लाठी खाईं,
घर-जमीन भी फिसल गई थीं।
गोरों की गोलियां बगल से,
सन-सन करती निकल गई थीं।
पत्नी की परवाह नहीं की,
बच्चे भी अनाथ डोले थे।
पर स्वतंत्रता के आते ही,
नेताओं की जय बोले थे।
लाखों जन ऐसे भी निकले,
जो कि सुबह थे, शाम हो गए।
जिनके घर नीलाम हो गए,
सर भी कत्ले-आम हो गए।
और हजारों ऐसे भी थे,
जो अपनापन भूल गए थे।
हंसते-हंसते कोड़े खाए,
फिर फांसी पर झूल गए थे।
जो जंगल-जंगल भटके थे,
छिपे-छिपे सब-कुछ करते थे।
आजादी की आग लगी थी,
और मारकर ही मरते थे।
कुछ उनमें फाकानशीन थे,
जिंदा रहने की मशीन थे,
झंडे पर कुर्बान होगए,
भारत मां की शान होगए।
जिनके लिए जेल मंदिर था,
सदा पैर उसके अंदर था।
पराधीनता ही डायन थी,
हर गोरा उनको बंदर था।
जो सिर का सौदा करते थे,
नाम सुना दुश्मन डरते थे।
कुछ होली, कुछ ईद होगए,
लाखों वीर शहीद होगए।
मेरी तरह सभी ने यारो,
रात-रात सपने बोए थे।
भारत मां की दीन-दशा पर,
ज़ार-ज़ार हम सब रोए थे।
सिर्फ इसलिए- अपना भारत
फिर से शोषणहीन हो सके।
मिटे विषमता, सरसे समता,
जन-गण स्वस्थ, अदीन हो सके।
उन्हें क्या पता, यह स्वतंत्रता,
कुछ वर्षों में ऐसी होगी।
पुलिस और भी जालिम होगी
सत्ता बन जाएगी रोगी।
जनता द्वारा चुनकर नेता,
फिर से भोगी बन जाएंगे।
अफसर लोभी हो जाएंगे,
ढोंगी योगी बन जाएंगे।
राजा अंधा हो जाएगा,
अंधी हो जाएगी रानी।
अंधे रायबहादुर होंगे,
अंधे बन जाएंगे ज्ञानी।
अंधी पुलिस, प्रशासन अंधा,
अंधे वोटर, अंधा चंदा।
कहाँ-कहाँ तक मित्र गिनाएं,
अंधी पीसें कुत्ते खाएं।
अंधों की दुनिया में यारो,
अब अंधों की ही कीमत है।
अंधे लोग रेबड़ी बांटें,
अंधों का ही अब बहुमत है।
क्यों करते आश्चर्य, कमाई
अंधी है, सब जोड़ रहे हैं।
जिसकी जहाँ आँख खुलती है,
उसकी मिलकर फोड़ रहे हैं।
ये विकास है, यही प्रगति है,
यही योजना का वितान है।
सबको अंधा करते जाओ,
स्वतंत्रता का नवविहान है।
आजादी का यही सुफल है,
अरे शहीदो, नाचो-गाओ!
आसमान से फूल नहीं तो,
थोड़े से आँसू टपकाओ!
अब तिजाब ही गंगाजल है,
जुल्मों का पर्याय पुलिस है।
जो इसको असत्य कहता है,
वह झूठा है, वही फुलिश है।