भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या हुआ जो पर हमारे फंँस गए हैं जाल में / धर्वेन्द्र सिंह बेदार
Kavita Kosh से
क्या हुआ जो पर हमारे फंँस गए हैं जाल में
हम परिंदे उड़ चुके हैं पहले भी इस हाल में
पर कतर डाले भले सय्याद डैने नोच ले
आसमांँ को हम छुएँँगे एक दिन हर हाल में
ज़िंदगी के रास्ते हों लाख पेच-ओ-ख़़म भरे
ज़िंदगी उलझा न पाएगी हमें जंजाल में
ज़िंदगी में जीतना मुमकिन न हो बेशक मगर
हारना सीखा नहीं हमने किसी भी हाल में
यूंँ तो शायर हैं बहुत कहने को दुनिया में मगर
मीर-सा पैदा हुआ करता हज़ारों साल में
हों न हों हम कल यहाँँ 'बेदार' लेकिन नेकियाँँ
अनगिनत होंगी हमारे नामा-ए-आमाल में