भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या हो गया है हमें / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
क्या हो गया है हमें?
कि हम हैं खड़े मील के गड़े पत्थर की तरह
नापते हुए सदा, एक से दूसरे की दूरी
खंडित हुए माथे पर खुदाए मजबूरी?
कोई है कुछ और कोई है कुछ
किन्तु अपने न कुछ होने का इश्तहार
हम खुद कर रहे हैं बार-बार।
रचनाकाल: ०८-०८-१९६१