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क्यूँ अँधेरे हम को याद आने लगे / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

क्यूँ अँधेरे हम को याद आने लगे
क्यूँ ये दीपक आग बरसाने लगे

लोग कुछ लोगों को समझाने लगे
लोग कुछ लोगों को उकसाने लगे

डरने वाले सब किनारे रह गए
जो निडर थे तैर कर जाने लगे

आप के इतना कहाँ हूँ मैं शरीफ़
आप तो बेकार घबराने लगे

हो नहीं पाया मुक्म्मल भी मकान
लोग इक-इक ईंट खिसकाने लगे

कैसे संजीदा उन्हें माने 'यक़ीन'
उन के सब अंदाज़ बचकाने लगे