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क्यूँ कर न ऐसे जीने से या रब मलूल हूँ / बाक़र आग़ा वेलोरी
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क्यूँ कर न ऐसे जीने से या रब मलूल हूँ
जब इस तरह अदम का भी मैं ना-क़ुबूल हूँ
क्या ख़ूब मेरे बख़्त की मंडवे चढ़ी है बे
ना बाग़ न बहार न काँटा ना फूल हूँ
इस इश्क़ में ही कट गई सब उम्र पर हुनूज़
नालाएक़-ए-फ़िराक़ ना बाब-ए-वसूल हूँ
तालए की मेरे देखिए फूली है क्या बहार
अनवा ख़ार ख़ार से मैं जूँ बबूल हूँ
‘आगाह’ अब किसी की शिकायत में क्या करूँ
देखा जो ख़ूब आप ही अपना में मूल हूँ