क्यूँ जल गया न ताब-ए-रूख़-ए-यार देख कर / ग़ालिब
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रूख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
आतिश-परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे
सरगर्म-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर
क्या आबरू-ए-इश्क़ जहाँ आम हो जफ़ा
रूकता हूँ तुम को बे-सबब आज़ार देख कर
आता है मेरे क़त्ल को पर जोश-ए-रश्क़ से
मरता हूँ उस के हाथ में तलवार देख कर
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
लरज़े है मौज-ए-मय तिरी रफ़्तार देख कर
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़्त-ए-आज़ार देख कर
बिक जाते हैं हम आप मता-ए-सुख़न के साथ
लेकिन अयार-ए-तबअ-ए-ख़रीदार देख कर
ज़ुन्नार बाँध सुब्हा-ए-सद-दाना तोड़ डाल
रह-रौ चले है राह को हमवार देख कर
इन आबलों से पाँव घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
क्या बद-गुमाँ है मुझ से कि आइने में मिरे
तूती का अक्स समझे है ज़ंगार देख कर
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तलल्लीन तूर पर
देते है बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर
सर फोड़ना वो ‘ग़ालिब’-ए-शोरीदा हाल का
याद आ गया मुझे तिरी दीवार देख कर