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क्यों ग़मे-रफ्तगां करे कोई / नासिर काज़मी

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क्यों ग़मे-रफ्तगां करे कोई
फ़िक्रे-वामांदगां करे कोई

तेरे आवारगाने-ग़ुरबत को
शामिले-कारवां करे कोई

ज़िन्दगी के अज़ाब क्या कम है
क्यों ग़मे-लामकां रहे कोई

दिल टपकने लगा है आंखों से
अब किसे राजदां करे कोई।

इस चमन में बरंगे-निकहते-गुल
उम्र क्यों राएगां करे कोई

शहर में शोर, घर में तन्हाई
दिल की बातें कहां करे कोई

ये खराबे ज़रूर चमकेंगे
एतबारे-ख़िजां करे कोई।