क्यों दिया यह दान? / रामगोपाल 'रुद्र'
कविहृदय का दान
दाता! क्यों दिया यह दान?
देकर मृत्तिका की देह
सौ-सौ आँसुओं का गेह
कहते हो, न भींगूँ; किन्तु,
छवि के चतुर्दिंङ्-मेह!
मैं कैसे करूँ परित्राण?
तुमने क्या दिये सामान,
जिनसे बच सकें मन-प्राण?
पाया, बस, हृदय का दान तुमसे कविहृदय का दान!
कण-कण में जिसका वास,
मन-मन में जिसका हास,
ध्वनि-ध्वनि में कि जिसका ध्वान,
गति-गति में कि जिसका लास
माया, अनथ-अनिति वितान,
भव का राग, लय की तान-
किसका है विनोद-विधान?
तिस पर यह हृदय का दान मुझको कविहृदय का दान!
थल-थल निहित दलदल घोर,
ओर न छोर, तिमिर अथोर;
सम्बलहीन, दुर्बल, दीन,
मैं बढ़ता, कहो, किस ओर?
इतना भी न रक्खा ध्यान,
कैसे जायगा, अनजान,
बे-पहचान, पथिक अजान!
तिस पर यह हृदय का दान, भावुक कविहृदय का दान!
मुझ पर भ्रांति का आरोप,
पर अपना न देखा कोप?
कहते हो कि खोलो आँख,
करके आँख ही का लोप;
भ्रम में क्यों न पड़ते प्राण?
पाकर भ्रम-भरा यह ज्ञान,
भ्रम के ज्ञान का अभिमान!
उस पर कवि-हृदय का दान! दाता! क्यों दिया यह दान!