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क्यों मन इतना बेचैन सखी / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'

क्यों मन इतना बेचैन सखी !

मनवा मेरा कुछ पागल -सा,
नित सोचे तुझको साँझ ढले।
तकते रस्ता खामोश नयन,
सुंदर- सा इनमें स्वप्न पले।
हलचल है कोई तन मन मे,
खो कर जीती हूँ चैन सखी!

जब चाहत की लहरें उठती ,
होठों पर आता गीत नया।
झूमे तब मन का हर कोना ,
बजने लगता संगीत नया ।
सारा दिन गुजरे गीतों सँग ,
तारों सँग गुज़रे रैन सखी!

करती यदि चाहत की चाहत,
तब आज शिकायत ये कैसी।
मुझको चलना होगा उन पर,
चुन ली मैने राहें जैसी।
तस्वीर बसाकर इस दिल में,
आबाद करूँ ये नैन सखी!