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क्रांति की प्रतीक्षा में / मनोज श्रीवास्तव

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क्रांति की प्रतीक्षा में

पीछे मुड़कर
इतिहास-पथ पर ढूंढ़ आओ,
वह कहीं नहीं दिखेगी,
वह कभी नहीं आई है
सिर्फ विडम्बना खेलती रही है
हमारी स्पंजी सभ्यता से
  झोपड़पट्टियों से
  सजीले राजमार्गों तक...
 
भिक्षुओं, सूफियों और क्रांतिवीरों की भीड़
हजारों पीढ़ियों से करबद्ध रोती-बिलखती
आह्वान करती रही है उसका
और कभी-कभार बाजुओं से
असफल उतरती भी रही है

वह बंजर बाजुओं में नहीं
उर्वर भावनाओं से प्रसवित होती है,
और पलती है, बढ़ती है
सयानी होती है
--दिल के एक कोने में,
इंसानियत के शीतल तरु-तले
वह प्रतीक्षा में है--
एक इंसानी कवायद की

वह नारों से अवतरित नहीं होगी,
सियासी मसखरों के
स्वान्त: सुखाय जुमले
उसे हमसे कोसों दूर ले जाएँगे,
काव्यनाद पर भी
वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगी,
उसे कितना भी गलाफाड़ पुकारो
वह अगले डेढ़ सौ सालों तक
अंगूठा दिखाती जाएगी--
बुड़भक भुच्च हिन्दुस्तानियों को

भूख कैसी भी हो
रोटी बांटने वह क्यों आएगी,
प्यास कितनी भी असह्य हो
तुम्हारे आंगन वह
कुआँ खोदने नहीं आएगी,
हत्याएं कितनी भी जघन्य हों
हत्यारों के खिलाफ वह
पंचायत बैठाने कैसे आएगी

वह तब आएगी
जब मुर्दनी विचारों से
हम मुक्त होंगे,
जब हम नींद में भी चौकस होंगे,
जब रंगरेलियों में भी
बच्चों का ख्याल कोंचता रहेगा,
जब हम पोस्टरों में
नारों की घुड़सवारी तज
सड़कों को
पगडंडियों की ओर
उन्मुख करेंगे

हां, बस! वह
एक बार ही आएगी
और हम सबको
देवता बन जाएगी.