क्रान्ति की प्रतीक्षा-10 / कमलेश
कभी-कभी वे सोचेंगे वृद्धावस्था में, सारी उमर बीती
अब छोटे-मोटे सुखों का लोभ भी कर लें, और यात्रा को
पड़ाव बना नख़लिस्तान बना लेंगे किसी झील पर,
समुद्री हवाएँ तुम्हें संकेत देंगी और तुम्हारा जीवन
उस द्वीप पर पहरेदारी करते बीत नहीं जाएगा,
तुम्हारा पौधा उस तेज़ गर्मी में कुम्हलाने नहीं पाएगा, तुम्हारे
हाथ छुएँगे और तुम्हारे स्पर्श से वह बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा
तुम्हारे बेटे होंगे, बेटियाँ होंगी और तुम वंशजों को
केवल वह पौधा सौंपोगे, कोई कामना नहीं
सुखी जीवन की, अपेक्षा केवल सींचने, स्पर्श देने की
हवाएँ हिल-मिल कर मित्र होंगी, तूफ़ानी रातें भी
अहानि गुज़र जाएँगी
सारी दुर्घटनाएँ सींचेगी, हरे-हरे पात लाएँगी
आने वाली पीढ़ियाँ सदा उर्वरा होंगी
भारत की--
वर्तमान की चापलूसी में तुम कभी भी अपने अतीत को
व्यर्थ नहीं समझोगे
तुम बसों में जाओगे, धक्के खाओगे, घिरते हुए
उनके फन्दे में कभी बहकोगे नहीं,
दिन में नींद आने पर भी तुम जाग लोगे, राजनीति की
रस्साकशी में
तुम्हारे एक कायर दिल है कभी-कभी आगे बढ़ लड़ने में
रस लेता हुआ,
जानते हो तुम कहाँ पाँव रख डाँवाडोल नहीं होगे,
इतिहास अपनी नियत राह पर चला तो मुझे विश्वास है कभी
शासनक्रम में एक सौ तीसवाँ या चालीसवाँ स्थान
तुम्हारा होगा।