क्रान्ति की प्रतीक्षा-6 / कमलेश
मैं बैठ कर देखता नहीं रह सकता जब आग
धधकती बढ़ रही है हवा के साथ,
धरती फटती जा रही है और सहस्रों टन गैसोलीन
इस आग में पड़ता जा रहा है, मुझ जैसे
सर्वज्ञानियों से कुछ भी छिपा नहीं है, केवल
दैनिक पत्रों के स्तम्भ-लेखकों द्वारा प्रचारित किए जाने पर भी
समाजशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली ख़ुफ़िया पुलिस
समझ नहीं पाती है, उदाहरण के लिए
मुझे मालूम है कि यह इसी समय सम्भव था
कि सरकार नागिरक अधिकारों पर हमला करती, साबुन का
दाम बढ़ाती और गेहूँ अमरीका से ज़्यादा या
कम आयात करती और क्यों फिर इसी समय
जगह-जगह हड़तालें हुईं, बसें जलीं, गोलियाँ चलीं
पुलिस की, और तसवीर गिरी प्रधानमन्त्री की,
मैं बैठा नहीं रह सकता जब मुझे अपना वक़्त
धरती पर उतार लाना है, मुझे ख़ुशी है
समय इस कोलाहल में धीरे-धीरे
पक्षधर होता जा रहा है ।