क्रौंच वध / भाग - 1 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मृदु मन्द समीरण सर-सर-सर
बहता था सौरभ-भार लिये।
अलसाया-सा कुछ विस्मृत-सा
स्पर्शों में मीठा प्यार लिये।
इठलाता फिरता था प्रतिपल
स्वच्छन्द मुक्त वन-उपवन में।
विचरण करता वल्लरियों में
उन्माद भरा था यौवन में।
झुक झूम-झूम बातें होतीं
नव नव विकसित कलिकाओं से।
सर-सर के बोल न जाने क्या
कहते लज्जित लतिकाओं से?
लतिकाएँ-कलिकाएँ उसका
पा स्पर्श सुखद शीतल-कोमल।
हिलमिल कर आलिंगन करती
थीं एक दूसरे का प्रति पल॥
मृदु आनन सस्मित हो जाते
उर की कलियाँ कलियाँ खिलतीं।
अपनी कहने, उनकीसुनने
उत्सुक कलियाँ कलियाँ मिलतीं॥
बातें कहने सुनने में भी
कोमल तन लचक लचक जाता।
‘अवशेष रहा उसको कल फिर’
मन कह कर झट मुसका जाता॥
वे फिर से झूम-झूम उठतीं
बेसुध हो कर मतवाली-सी।
भौंरे मँडराते आ जाते
करते उनकी रखवाली-सी॥
अथवा ये स्वयं बुला लेती
अंगों का दे संकेत मधुर।
या सुरभि तीव्र इनके तन की
बन जाती दूती स्वयं चतुर॥
ये मुख ऊपर कर लेती थीं,
वे प्यार भरी बातें करते।
ये स्मित रेखाओं से अंकित
करतीं कुछ; वे घातें करते॥
विस्मृत-विभोर होतीं सुन कर
पीयूष-वर्षिणी झंकारे।
भर जाते प्यासे कर्ण-कुहर
पी-पी कर मीठी गुँजारे॥
पर उच्च स्वरों में जब भौंरे
गंुजन करते करते थकते।
चुपचाप पास आ कर कोमल
कलियों के वे गुन-गुन करते॥
कह देते अपनी मृदु थकान
धीमे से मीठी बोली में।
कलिकाएँ भी चुपचाप बुला
बिठला लेती थीं ओली में॥
मद-मत्त भ्रमर-कलियों का यह
चलतारहता व्यापार मधुर।
पर सहन समीरण कब इसको
करता; हो जाता क्रोधातुर॥
अविलंब एक ही झोंके से
झकझोर डालता कलियों को।
कब क्रीड़ा करने देता वह
सुख से उन भ्रमरावलियों को॥
बेसुध-सा स्वयं घूमता था
अपनी मस्ती में ही प्रतिपल।
सौरभ-कण से सुरभित शरीर
करता रहता क्षण-क्षण, पल-पल॥
कल्लोल किया करता निशि-दिन
हंसती चटकीली कलियों में।
जब हृदय चाहता छोड़ उन्हें
विचरण करता मंजरियों में॥
मंजरियाँ भी अपना अनुपम
सौरभ बिखेरती रहती थीं।
अपने तरु की डाली-डाली
पर बैठ झूलती रहती थीं॥
क्यों नहीं झूलती? उन्हें गर्व
‘हमको मीठे फल देना है।
कुछ थोड़े दिन की बात शेष
जग की झोली भर देना है॥
कोयल अपनेपंचम स्वर में
इनको मधु गान सुनाती थी।
‘कहु कुहु’ कल कोमल कूजन में
रस-कण क्षण-क्षण ढुलकाती थी॥
अमृत-कण रिसते डालों से
वन-उपवन-पवन सरस बनते।
सर सर, मर मर के मधुमय स्वर
पत्तों की जाती से छनते॥
झुक झूम झूलतीं मंजरियाँ
थक जातीं, रुकतीं, सो जातीं।
अपने तरुवर की गोदी में
मीठी निद्रा में खो जातीं॥
पर चुपके चुपके से आ कर
मारुत हलका झोंका देता।
पलकों में सपने बन्द किये
मंजरियों को चोंका देता॥
मंजरियाँ अलसाई-सी जब
झुक दृष्टि डालतीं-कौन? कहाँ?’
कोई न दिखाई देता था,
उपवन प्रणान्त, सब मौन वहाँ॥
मानो सागर की शान्त गोद
में लोल लहरियाँ जो सोई।
मणि-स्वप्न देखती थी उनको
मारुत-सा छेड़ गया कोई॥
वे अलसाई-सी, कूलों से
टकरा कर कहतीं-‘कौन? कहाँ?’
कोई न दिखाई देता था,
सागर प्रशान्त, अब मौन वहाँ॥
वे फिर से चुप हो सो जातीं,
पर मारुत कब सोने देता?
तरु की डाली को हिला हिला
कर छेड़ उन्हें वह सुख लेता॥
लहलहा रहीं खेतों में थीं
सरसों सुन्दर पीली पीली।
फूली न समाती इठलाती,
ओढ़े नभ की चादर नीली॥
रवि के कर का पा स्पर्श सुखद
सोने-सा रंग निखरता था।
तरुणाई की अरुणाई का
अनुपम सौन्दर्य बिखरता था॥