क्रौंच वध / भाग - 3 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
लख रहे खड़े तमसा-तट पर
थे वाल्मीकि हो निर्निमेष।
इस मधुमय क्रीड़ा को, विस्मृत
कर नित्य कर्म अपने विशेष॥
संध्या के सुन्दर रंगमंच
पर मधुर प्रकृति के प्रांगण में।
लख क्रौंच-युग्म का मधुर मिलन
ऋषि हर्षित होते थे मन में॥
उर से उद्गर निकल पड़ते-
”कहता रे कौन जगत् दुखमय?
पीड़ा का ही साम्राज्य यहाँ
है किसका यह ऐसा निर्णय?
यह केवल कृत्रिम शब्द-जाल
अनुभूति-गम्य यह तथ्य नहीं
यदि है, तो क्या मेरे सम्मुख
जो दृश्य मधुर वह सत्य नहीं?
संध्या भर माँग, भाल बेंदी
दे, पहन विभूषित नीलांबर।
सरिता के दर्पण में निहार
अपना स्वरूप आ रही उतर॥
नभ है निर्मल, शशि है शीतल,
शीतल होंगी किरणें चंचल।
तारे उज्ज्वल, नभ-तल, भूतल
क्षण-भर में होगा धवल-विमल!!
बह रहा पवन धीमे-धीमे
वन को सुरभित करता करता।
कह रहा कान में कलियों के
‘आ रहा भ्रमर उड़ता उड़ता॥’
कलियाँ भी प्रस्तुत हैं सहर्ष
भ्रमरों का शुभ स्वागत करने।
लो ये भौंरे भी बना चुके
अपना घर आज यहीं रहने॥
इस सरिता का देखो प्रवाह
कितना स्वच्छंद, स्वच्छ, निर्मल!
उपकूलों का पा स्पर्श मधुर
हँसता रहता कैसा कल-कल॥
ये लतिकाएँ हर्षित हो कर
जा रहीं लिये सुमनावलियाँ।
तरु को पहनाने मालाएँ
अपने कर से, कर रँगरलियाँ॥
ये आम्र-वृक्ष की डालें भी
मंजरियों का उभार ले कर।
पत्तों में छिपा-छिपा रखतीं
उनको झुक-झुक लज्जित हो कर॥
ये खेल रहे हैं मृग-शावक
भी कैसे निर्भय हो-हो कर।
शेरों के बच्चों के सँग में
क्रीड़ा में रत सुध-बुध खो कर॥
यह इधर खड़ा कैसा सशंक
उद्ग्रीव हरिण ले तृण मुख में!
है भूल गया चरना, फिरना
देखो न तनिक-सी आहट में!!
यह सहला रहा हरिण देखो
अपने सींगों से मृदुल मृदुल।
हरिणी को, जो पा स्पर्श सुखद
बैठी है नयन मूँद चंचल॥
वह देखो तमसा के जल में
क्रीड़ा करता गज-युग्म एक।
वारण करने पर भी वारण
रखता है अपनी मधुर टेक॥
वह करिणी भी निज मृदुल सूँड़
में भर सुरभित जल बार-बार।
जल-पान कराती है अपने
करि को हर्षित होती अपार॥
यह चक्रवाक पक्षी देखो
कर रहा मधुर कोमल क्रीड़ा।
चकवी को खिला रहा अपना
आधा चर्बित मृणाल-बीड़ा॥
यह क्रौंच-युग्म उन्मत्त हुआ
खोया सा फिरता है वन में।
क्षण में विचरण करता भू पर
क्षण में उड़ता गगनांगन में॥
मानो सर्वत्र इसी का है
नभ-जल-थल पर साम्राज्य एक।
अपनी मीठी धुन में बेसुध
कल्लोल कर रहा है अनेक॥
लख संध्या का आगमन निकट
वह सोच रहा घर को जाना।
है देख रहा ऊपर विहगों
का निज-निज नीड़ों में जाना॥
कुछ दूर जा रहे चहक चहक
धूमिल नभ में उड़ते उड़ते।
कुछ यहीं इन्हीं वृक्षों में ही
बैठे आ कर थकते थकते॥
दिन-भर के श्रम से थकित जीव
चाहते नीड़ अपने अपने।
जिन में विश्राम मिले उनको
देखें सुन्दर सुखमय सपने॥
पर यह तो मस्त, नहीं सीखा
इसने सोना तरु-डालों पर।
यदि यही कला आती होती
अपना लेता कोई भी नर॥
है भी इसको किसकी चिंता,
स्वच्छन्द सतत निर्भय मन में?
निज सहज बुद्धि का रहा इसे
विश्वास सदा ही जीवन में॥
लख एक दूसरे को स्व-पार्श्व
में होता है हर्षित विभोर।
सुन बात परस्पर मृदु शीतल
लेता रहता जीवन हिलोर॥
जग ही इसका है स्वतः पूर्ण
इसको विश्राम वहीं मिलता।
इस जग के ये दो ही प्राणी
तीसरा न विघ्न डाल सकता॥
सुख-सुषमा का भण्डार यहाँ
संपूर्ण प्रकृति के प्रांगण में।
ऐसे ही सुन्दर सुखद दृश्य
होते परिवर्तित क्षण-क्षण में॥
रे, भ्रान्त धारणा है उनकी
कहते जो सब दुख ही दुख है।
‘है पीड़ा का ही राज्य यहाँ’,
यह लगा न मुझे...सही मत है॥“
हो सका न पूरा वाक्य, फड़फड़ा
पंख क्रौंच सम्मुख सत्वर
गिर पड़ा; एक आखेटक का
चुभ गया बाण वक्षःस्थल पर॥
रह गये चकित, स्तंभित, अवाक्
निज नेत्र फाड़ लखते ऋषिवर।
यह कैसा भीषण वज्रपात
क्रौंची ने समझ पाई क्षण-भर॥
रह गयीं दिशाएँ शून्य देख,
रुक गया पवन चलता-चलता!
तमसा का चल-चंचल प्रवाह
थम गया वहीं बहता-बहता!!
रुक गयी कली खिलती-खिलती,
रह गया भ्रमर उड़ता-उड़ता।
हो कर सशंक उद्ग्रीव हरिण
रुक गया वहीं चरता-चरता!!
रुक गये खुले के खुले वहीं
नभ के असंख्य, अनगिनत नयन।
रुक गया चाँद चलते-चलते
रह गया शून्य स्तंभित उस क्षण॥
पाया न समझ कोई, यह क्या
हो गया अचानक परिवर्तन!
रह गया स्तब्ध क्यों सरस-सुखद
आनंद-भरा कन-कन तृन-तृन॥
हो भ्रमित दृष्टि डाली ज्यों ही
क्रौंची ने प्रिय-शव के ऊपर।
झपटा झट आखेटक त्यों ही
मृत क्रौंच उठाने को सत्वर॥
”ओ बधिक! तुझे जग में जीवित
रहने का है अधिकार नहीं।
वसुधा तेरे बोझिल जीवन
का वहन करेगी भार नहीं॥
जब तक नभ है, जल है, थल है,
जब तक यह अनल, अनिल बहता।
तू मान-प्रतिष्ठा का तब तक
सुख, स्वप्न कभी न देख सकता॥
जो युग्म केलि-रस में निमग्न
उसके सुख का कर नष्ट साज
पापी! तूने यह किया व्यर्थ
कैसा घृणास्पद कर्म आज!!“
करुणा-प्लावित ऋषि-हृदय स्वतः
बन कर अभिशाप लगा बहने।
अवरुद्ध हो सका कब प्रवाह
वाणी का; लगे पुनः कहने-