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क्रौंच वध / भाग - 6 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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शर-सम थीं तीक्ष्ण, द्रवित कवि की
हृदयस्थ भावनाएँ पुनीत।
गिर पड़ा विद्ध हो कर हिंसक
आखेटक चरणों में विनीत॥

कवि लगे उठाने झुक नीचे,
ज्यों ही फिर नेत्र किये ऊपर।
रह गये चकित सुनते सुनते
आ रहे कहीं से थे ये स्वर-

‘ओ आदिकवे! ओ आदिकवे!
हो पूर्ण तुम्हारी अभिलाषा।
जिस दिव्य शक्ति का स्वप्न तुम्हें
वह देव-लोक की भी आशा॥

वरदान मिला है आज स्वयं
वाणी का तुमको अनायास।
जिसको पाने के लिए यहाँ
रह जाते कितने ही प्रयास॥

बन गया शोक ही आदि श्लोक
वाणी का पा साकार रूप।
लौकिक छन्दों में प्रथम श्लोक
का नाम उसे जग दे अनूप॥

अभिशाप तुम्हाा करुणा में
घुल कर उर से जो प्रकट हुआ।
साहित्य विश्व-भर का उसको
पा कर सहसा ही धन्य हुआ॥

केवल अभिव्यक्ति-स्वरूप, बाह्य
ही मिला उसे, यह बात नहीं।
क्या करना है अभिव्यक्त उसे
इसका भी है संकेत वहीं॥

विश्वात्मवाद की मूल प्रेरणा-
ही से सब लिखना होगा।
कल्याण लोक का ही जिससे
उतना ही बस कहना होगा॥

अभिव्यक्ति व्यक्ति की कभी नहीं
होगी जग को कल्याणमयी।
हाँ, व्यक्ति करे अभिव्यक्त विश्व-
भावना, सृष्टि वह स्वर्णमयी॥

हैं भाव-अभाव, दुःख-पीड़ा
जो व्याप्त विश्व के अन्तर में।
उनसे हो एकाकार द्रवित
जब भाव-óोत फूटें स्वर में॥

वे ही स्वर होंगे कविता के
जो जन-मानस को छू लेंगे।
आनंद अलौकिक जिनसे पा
प्राणी दुःखों को भूलेंगे॥

सोचना न होगा क्षण-भर भी।
‘क्या’ को ‘कैसे’ अभिव्यक्त करें।
जो जैसे निकलें भाव स्वतः
उनको वैसे ही व्यक्त करें॥

नैसर्गिक आभा में झिलमिल
हो जो अन्तरतम की पुकार।
उसको न बिगाड़ें हम कृत्रिम
कर से छू कर भी एक बार॥

अनुभूति तीव्रतम ले उर की
वाणी जैसे भी करे प्रकट।
चुभ जायेगी वह तीक्ष्ण बाण-
सम हृदय-बीच कर घाव अमिट॥

आनन्द-अभावों का सुमधुर
संयोग बनेगा स्रोत सबल।
साहित्य-सरित् की धारा में
होगी जग-जीवन की कल-कल॥

लहरें लहरायेंगी शीतल
उस रस-स्रोत की धारा से।
मानव प्रतिपल उर्मिल होगा
हो मुक्त स्वार्थ की कारा से॥

जग में जीवन, जीवन में जग
होंगे ये एकाकार यहाँ।
शिव, सत्य और सुन्दर का ही
होगा बस दृढ़ आधार यहाँ॥

मानव होगा मानव, प्राणी
को समझेगा प्राणी, प्राणी।
कल्याण विश्व का कर सकती
है केवल कल्याणी वाणी॥

अभिव्यक्त कर सकी होती यदि
क्रौंची ही अपनी हृदय-व्यथा।
हो युग-युगान्त के लिए नष्ट
जाती जग की यह करुण-कथा॥

पीड़ा-करुणा का साम्राज्य
उठ गया विश्व से ही होता!
तब इस समस्त भू-मण्डल का
निर्माण और ही कुछ होता॥

होते न कहीं फिर वाल्मीकि
अभिशाप-ज्वाल बरसाने को!
वाणी निःसृत न हुई होती
करुणा का स्रोत बहाने को!!

पर अब करुणा की धार प्रखर
जीवन की धारा में होगी।
उसकी सुमधुर कल-कल ध्वनि में
ही व्यक्त विश्व-करुणा होगी॥“

‘दे रहा कौन सन्देश मधुर?’
कवि लगे मुदित करने विचार।
देखा न वहाँ पर था कोई,
थी केवल अन्तर की पुकार॥

क्रोधित, करुणा-प्लावित कविवर
पा कर अमृत का अभिषिंचन।
हो कर शीतल, गद्गद, विह्वल,
कुछ कह न सके, बीते कुछ क्षण॥

मुँद गये नयन, रह गये खड़े
सोचने लगे ”वरदान मिला!
वाणी का मुझको अनायास
उर-शोक श्लोक बन कर निकला!!

वस्तुतः छन्द यह आदि छन्द
लौकिक छन्दों में प्रथम श्लोक!
अब तक न हुई रचना ऐसी
परिचित इससे क्या नहीं लोक!!

वैदिक छन्दों में ही अब तक
अभिव्यक्त भावना होती थी।
उन चिर-परिचित नीड़ों में ही
कल्पना थकी-सी सोती थी!!

क्या परिवर्तन है हुआ आज
साहित्य-जगत के जीवन में!
नव प्राण-स्फूर्ति-चेतना सबल
श्वासों के अभिनव स्पन्दन में॥

अभिशाप बन गया क्रान्ति-दूत
नव-जीवन का सन्देश लिए!
भावों की क्षितिज-लहरियों से
कल्पना उठी नव वेश लिए!!

पा कर वाणी का वर सुन्दर
कृतकृत्य हुआ मेरा जीवन।
आनन्द-लहरियाँ लहरेंगी!
रसमय होगा नीरस कण कण!!”

इन भाव-तरंगों में क्षण भर
आश्चर्य-चकित ऋषि हुए मग्न।
‘क्या सच है यह?’ हाँ सच है यह!’
प्रश्नोत्तर में था हृदय लग्न॥

विह्वल ऋषि; अगणित किये यत्न
पर खोल सके कब नेत्र द्वार?
‘क्या सच है यह?’ ‘हाँ सच है यह!’
आती थी ध्वनि यह बार बार॥

इतने ही में मधु-कण-सिंचित
झंकार कहीं से वीणा की।
आ पड़ी कान में, याद उठी
नभ-क्रौंच-गान की, क्रीड़ा की॥

हो चकित, नेत्र खोले, देखा
केवल नत-नयन अहेरी को।
बह रही अश्रुधारा अविरल
उर बीच लिये था क्रौंची को॥

नयनों की सजल प्रवाह-पूर्ण
भाषा में पढ़ कर विकल भाव।
परिवर्तित हृदय अहेरी के;
औ’ लख क्रौंची का अमिट घाव॥

भावना-द्वन्द्व परिचालित ऋषि,
कुछ बढ़े, रुक गये, पुनः बढ़े।
जा निकट बधिक के निर्निमेष
रह गये लिए संघर्ष खड़े॥

क्षण एक दृष्टि आखेटक पर,
दूसरी अचेतन क्रौंची पर।
तीसरी जिधर से कानों में
पीयूष बरसता रह रह कर॥

ऋषि रुक न सके,नत मस्तक पर
रख हाथ सान्त्वना दी उसको।
”प्रातः भूला सायं आया
भूला न कहेंगे हम उसको॥“

कहते कहते चेतना-हीन
क्रौंची के ऊपर हाथ फेर,
बोले- ”इसकी रक्षा तुझको
करनी है जा, अब कर न दे॥“

कुछ कह न सका, कर चरण-स्पर्श
लौटा क्रौंची उर लिए बधिक।
वीणा के कोमल मधुमय स्वर
आ गये और भी निकट अधिक॥

कानन का नीरव शांत प्रांत
गुंजित था मधु गुंजारों से।
ऋषि वाल्मीकि की हृत-तंत्री
झंकृत थी मृदु झंकारों से॥

ऋषि लगे देखने इधर-उधर
स्वर का मधुस्रोत विकल हो कर।
कुछ झुक नीचे देखा सुदूर
झाड़ी के झुरमुट से हो कर॥

सुध-बुध भूले अपने तन की
वीणा की मधु झंकारों में!
जा रहे देव-ऋषि नारद थे
गाते वीणा के तारों में-

”श्रीमन्नारायण नारायण
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्।
आनन्द-कन्द सब विश्व वंद्य
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्॥“